नीर-का-तीर : ये बिल्लियां आंख खोलकर चाट रहीं रबड़ी, शुतुरमुर्ग मुंह छिपाने के लिए रेत में गड़ा रहे गर्दन, कुत्ते इतराने लगे और गेंडे तो शर्माने ही लगे

आज का ‘नीर-का-तार’ थोड़ा अलग है, इसमें इनसानों के कुछ आचरणों की पशुओं की कुछ आदतों से साम्यताएं हैं। इसे पढ़कर यह जरूर बताएं की क्या यह ऑब्जरवेशन सही है।

नीर-का-तीर : ये बिल्लियां आंख खोलकर चाट रहीं रबड़ी, शुतुरमुर्ग मुंह छिपाने के लिए रेत में गड़ा रहे गर्दन, कुत्ते इतराने लगे और गेंडे तो शर्माने ही लगे
नीर का तीर : क्योंकि मानव भी तो एक पशु ही है...

नीरज कुमार शुक्ला

जीव विज्ञान (Biology) की एक परिभाषा के अनुसार मानव (Homo sapiens) भी एक पशु ही है। यह एक स्तनधारी प्राणी है जो प्राइमेट्स (primates) के क्रम में आता है। मनुष्यों में भी अन्य पशुओं के समान ही कोशिकाएँ, आनुवंशिक सामग्री, फेफड़े, तंत्रिका तंत्र, हृदय, मस्तिष्क और अन्य शारीरिक अंग होते हैं। दोनों में सिर्फ मेरुदंड (रीढ़ की हड्डी) का ही फर्क है। मनुष्यों में मेरुदंड सीधा-खड़ा होता है जबकि पशुओं में लेटा हुआ सा। समझ और तर्क करने की क्षमता के लिहाज को मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ माना जाता है, बशर्ते यदि किसी मनुष्य में मनुष्यता हो और उसका मेरुदंड भी सीधा हो।

आज का ‘नीर-का-तार’ का इस तरह विज्ञान सम्मत होना आपको थोड़ा भारी-भरकम लग रहा होगा, लेकिन देश-दुनिया के सिस्टम और मौजूदा हालातों को देखते हुए यहां इसका उल्लेख जरूरी जान पड़ता है। वजह यह कि, खुद को पशुओं से श्रेष्ठ मानने वाले कतिपय मनुष्य अपने आचरण-व्यवहार और क्रिया-कलापों के कारण अब इस लायक भी नहीं रह गए हैं कि उनकी तुलना किसी भी पशु से किसी भी स्तर पर की जा सके। पशुओं ने अपनी प्रकृति नहीं छोड़ी, अपना आचरण भी नहीं बदला लेकिन हम कुछ मनुष्य इस मामले में सारी सीमाएं लांघ चुके हैं। आइये, इसे इन कुछ संकेतों के माध्यम से समझने की कोशिश करते हैं।

बिल्लियों से श्रेष्ठ ये इंसानी बिल्लियां...

कहते हैं कि बिल्लियां दूध पीते समय आंखें मूंद लेती हैं। मनुष्यों का ही मानना है कि बिल्लियों को लगता है कि उनके आंखें मूंद लेने से किसी और को भी उनका दूध पीना नजर नहीं आएगा। भ्रष्टाचार को अपना शिष्टाचार बना चुके अधिकारी-कर्मचारियों ने भी बिल्लियों के इस आचरण को अपना आदर्श बना लिया है। इतना ही नहीं वे बिल्लियों से अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए अब अपनी आंखें मूंदकर घूस रूपी दूध-मलाई नहीं चाटते, वरन आंखें खोलकर और इसे रबड़ी की तरह औंटा कर ग्रहण करते हैं। जब उनकी इस कारगुजारी पर नजर रखने वाले (गैर)जिम्मेदारों ने खुद ही आंखें मूंद रखी हों तो फिर उन्हें किस बात का डर। अब यदि कोई घूसखोरी का विकास तेजी से होने और परसेंटेज 15-20 फीसदी से बढ़कर 40 से 45 फीसदी तक पहुंचने का आरोप लगाए, तो लगाता रहे। सीमेंट की जगह राख मिलाकर बनाए गए रोड, ब्रिज, भवन आदि उखड़ते और बहते हैं, तो बहते रहें।

इन शुतुरमुर्गों को अंडे नहीं सहेजना, अपना मुंह छिपाना है

द्वापर में एक दृष्टिहीन धृतराष्ट्र के कारण इतनी बड़ी महाभारत हुई लेकिन मौजूदा सिस्टम में तो खुली आंखों वाले अनेकों ही धृतराष्ट्र फल-फूल रहे हैं। इनमें अफसर भी शामिल हैं और जनप्रतिनिधि भी। इन खुली आंखों वाले धृतराष्ट्रों को न तो उखड़ी-अधूरी सड़कें दिखती हैं, न ही घूस लेते कारिंदे और समस्याओं से जूझती जनता। किसी का काम हो या न हो, इनकी बला से। इनका रवैया शुतुरमुर्ग के एक रवैये जैसा ही है। ये खुद पर मुसीबत आने पर शुतुरमुर्ग की तरह अपनी गर्दन बेशर्मी रूपी रेत में गाड़ लेते हैं। यह बात दीगर है कि शुतुरमुर्ग मुसीबत से बचाने के लिए ऐसा व्यवहार नहीं करता। दरअसल, वह अन्य पक्षियों की तरह उड़ नहीं सकता और न ही पेड़ों या किसी ऊंची जगह पर घोंसला बनाकर अंडा सहेज सकता है। उनके अंडे लगभग नारियल के आकार के होते हैं। इसलिए जैसे ही मादा शुतुरमुर्ग अंडे देती है वैसे ही यह नर व मादा पक्षी रेत में गड्ढा खोदकर न अंडों को दबा देते हैं। वे अपने इन्हीं अंडों को पलटते रहने और सहेजने के लिए अपना मुंह और गर्दन रेत (गड्ढे) में गाड़ते हैं।

कुत्तों के तो भाव ही बढ़ गए !

लोकशाही में लोक (जनता) गौण हो गई और अफसरशाही हावी। अव्वल तो यहां जनता की सुनवाई होती नहीं, यदि किसी की हो भी रही है तो यह तय मानिए कि वह राजनीति प्रेरित ही होगी। कहते हैं कि मजबूरी में लोग गधे तक को बाप बना लेते हैं। पूर्व में ऐसी अनेक घटनाएं हो चुकी हैं जिनमें समस्याग्रस्त लोगों ने अफसरों के बजाय जानवरों से आगे गुहार लगाना ज्यादा उचित समझा। ऐसी ही एक घटना मध्यप्रदेश के एक कस्बे में हुई जहां मूलभूत सुविधाओं और समस्याओं के निराकरण की मांग लेकर पहुंचे लोगों ने अफसर के नहीं मिलने पर कुत्ते को ही ज्ञापन सौंप दिया। इसे लेकर तरह-तरह के कटाक्ष हो रहे हैं। कोई कह रहा है कि कुत्ता तो वैसे ही वफादारी की मिसाल है तो कुछ लोगों का कहना है कि इस घटना के बाद से उनके इलाके के कुत्तों के भाव बढ़ गए हैं और वे गली-मोह्लों में अकड़ कर चलने लगे हैं।

गेंडा से भी मोटी चमड़ी वाली प्रजाति !

अगर किसी जिम्मेदार ने ठान ही लिया है कि उसे किसी की बात नहीं सुननी है तो फिर कोई कुछ भी कर ले, उसके कानों पर जूं तक नहीं रेंगेगी। गुहार लगाने वाले बच्चे हों, बूढ़े हों, महिलाएं हों, पुरुष हों, विद्यार्थी हों, शिक्षक हों, किसान हों या फिर व्यापारी हों, उनकी आवाज ‘नक्कारखाने में तूती’ और ‘भैंस के आगे बीन बजाने’ जैसी ही प्रतीत होगी। यदि उसने मान लिया है कि ‘यहां के हम हैं राजकुमार या सरकार’ तो उसे अपनी जगह से न तो हिलाया जा सकता है और न ही कुर्सी से उठाया जा सकता है। प्रायः ऐसे (गैर)जिम्मेदारों के आगे जनप्रतिनिधि ही नहीं, सरकारें भी बौनी ही नजर आती हैं। अगर यह कहा जाए कि ये उस प्रजाति के जीव हैं जिनकी चमड़ी गेंडे की चमड़ी से भी ज्यादा मोटी है, तो कदाचित अतिश्योक्ति तो नहीं होगी।

डिस्क्लेमर

‘नीर-का-तीर’ में लिखने की चुल मची थी इसलिए जो समझ आया, लिख दिया। अव्वल तो इसमें किसी को भी केंद्र में रखकर कुछ भी नहीं लिखा गया है और न ही हमें किसी को आईना दिखाने की ही गरज है। फिर भी, यदि किसी को अपने कार्य, व्यवहार, आचरण तथा ऊपर लिखे गए किसी हिस्से या उक्ति से साम्यता नजर आए तो हम माफी चाहते हैं। यकीन मानिए, हम इस साम्यता को ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’ नहीं मानेंगे।