'हमारी सड़कें बहुत ‘स्वादिष्ट’ हैं...' स्वादिष्ट चीज कहीं से भी और किधर से भी खाओ 'स्वाद' में अंतर नहीं पड़ता

'सड़कों पर गड्ढे' हैं या 'गड्ढों में सड़क' है... आप इन दिनों इसी 'खोज' में व्यस्त होंगे। हम भी तो अपनी तमाम प्राथमिकताओं को परे धकेल कर 'यही' कर रहे हैं।

'हमारी सड़कें बहुत ‘स्वादिष्ट’ हैं...' स्वादिष्ट चीज कहीं से भी और किधर से भी खाओ 'स्वाद' में अंतर नहीं पड़ता

नीरज कुमार शुक्ला

'सड़कों पर गड्ढे' हैं या 'गड्ढों में सड़क' है... आप इन दिनों इसी 'खोज' में व्यस्त होंगे। हम भी तो अपनी तमाम प्राथमिकताओं को परे धकेल कर 'यही' कर रहे हैं। सड़कों में गड्ढे की तो कोई गिनती ही नहीं और गड्ढों में सड़क मिलने का इंतजार तो 'डॉन' की तरह 11 मुल्कों की पुलिस (जनता) कर रही है लेकिन डॉन (सड़क) को पकड़ना (ढूंढना) मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। आपको 'सफलता' मिली क्या ? हमें तो नहीं मिली।

कहते हैं कि किताबें ज्ञान का भंडार हैं और हर प्रश्न का जवाब भी। इसलिए सोचा सड़क पर बारिश के पानी से लबरेज गड्ढों में गोते लगाने के बजाय कुछ किताबें ही टटोल ली जाएं। आलमारी खोली तो सबसे पहले जिस किताब पर नज़र पड़ी उसका शीर्षक है 'मैं भी खाऊं तू भी खा'। गुरुवर और साहित्यकार, चिंतक, समालोचक, व्यंग्यकार और कवि प्रो. अज़हर हाशमी द्वारा लिखित व्यंग्यों का यह संकलन आशीर्वाद के रूप में उन्हीं से प्राप्त हुआ था।

इसी संग्रह में प्रकाशित एक व्यंग्य ( हमारी सड़कें बहुत 'स्वादिष्ट' हैं ) है जिसे पढ़कर लगा कि- हम 'नाहक' ही मशक्कत कर रहे हैं। हमें सड़कों के मौजूदा हाल पर न तो 'मातम' मनाने की जरूरत है और न ही 'मातमपुर्सी' (सड़कों के कारण दूसरी दुनिया को चले गए लोगों के प्रति 'संवेदना' व्यक्त करने) की। दरअसल यह तो सड़क निर्माण और रखरखाव की व्यवस्था के 'मूल' में छिपे लोक'हित' का नतीजा है। व्यंग्य ने हमारे 'चक्षु' तो खोल दिए इसलिए हमने भी 'औरों' की तरह ही स्थिति से 'समझौता' कर लिया। हो सकता है यह आपकी मुश्किल भी आसान कर दे, तो खुद ही पढ़ लीजिए और आप भी हो जाइये '(अ)संवेदनशील'...

हमारी सड़कें बहुत 'स्वादिष्ट' हैं

प्रो. अज़हर हाशमी

हमारी सड़कें ‘स्वादिष्ट’ बहुत स्वादिष्ट हैं। यही कारण है कि हमारे देश के इंजीनियर, ठेकेदार और अन्य इसे अन्न की तरह खाते हैं, जो चीज स्वादिष्ट होती है उसे कहीं से भी और किधर से भी खाओ उसके स्वाद में अंतर नहीं पड़ता। सड़कें चूंकी ‘स्वादिष्ट’ चीजें हैं, इसलिए सड़कों को कभी इस कोने से खाया जाता है, कभी उस कोने से खाया जाता है। कभी ऊपर से खाया जाता है, कभी नीचे सिखाया जाता है। कभी बीच में से खाया जाता है, कभी सब तरफ से खाया जाता है। सड़कों के कोने पर गड्ढे होने का मतलब यह है कि इंजीनियर ने खाया है। सड़क के ऊपर-नीचे गड्ढे होने का अभिप्राय यह है कि इसे बड़े साहब और छोटे साहब ने मिलकर खाया है। सड़क के बीच में गड्ढे होने का तात्पर्य यह है कि इसे इंजीनियर और ठेकेदार ने खाया है। सड़क के सब तरफ गड्ढे होने का ‘अर्थ’ यह है कि इसे इंजीनियर, ठेकेदार और ‘अन्य’ अर्थात सब ने मिलकर खाया है। वाह ! क्या पाचन शक्ति है।

अच्छी पाचन शक्ति के कारण हमारे यहां ‘लोकसेवक’ सड़कों के साथ-साथ पुल भी खा जाते हैं। अंतर केवल इतना ही है कि सड़कें सलाद की तरह खाई जाती हैं और पुल पान- पराग की तरह चबाये जाते हैं। कोड वर्ड में सड़कें खाना ‘सिंहस्थ के मेले का समापन’ है और सड़कें तथा पुल खाना कुंभ के मेले का समापन है। कुछ लोग इससे सहमत नहीं हैं, वे समापन की बजाय संपन्न शब्द पर जोर देते हैं तथा सिंहस्थ की जगह अर्द्ध और पूर्ण कुंभ को ज्यादा पसंद करते हैं। इसको यों समझिये- सड़कें खाई गईं अर्थात् अर्द्ध कुंभ महापर्व संपन्न हुआ, सड़कें और पुल खा लिये गये अर्थात पूर्ण कुंभ महापर्व संपन्न हुआ। खैर !

तो बात चल रही थी कि हमारी सड़कें बहुत स्वादिष्ट हैं, इसलिए इन्हें खिलाया और खाया जाता है, कमीशन की कटोरियों में सड़कों को खिलाया जाता है। पेमेंट की प्लेटों में सड़कों को खाया जाता है अर्थात सड़कों को खिलाने और खाने का काम एक निश्चित अनुक्रम में चलता है। खिलाने का काम नीचे से ऊपर की ओर चलता है तथा खाने का काम ऊपर से नीचे की ओर चलता है। राजनीति विज्ञान के अंतर्गत लोकप्रशासन की भाषा में इसे सड़क पचाने का पदसोपान या रोड डाइजेस्टिंग हाइरारकी कहते हैं।

हमारी सड़कें खाने के अलावा अन्य कामों के लिए भी बड़ी उपयोगी हैं। क्रिकेट खेलने के लिये तो सड़क से बढ़िया और कोई प्रिय है ही नहीं। यही कारण है कि रात में बाजार की सड़कों पर और दिन में (कभी-कभी रात में भी) कॉलोनी तथा मोहल्ले की सड़कों पर क्रिकेट खेला जाता है। सड़क पर क्रिकेट खेलने से तीन बड़े लाभ हैं, एक तो यह कि मैकेनिकों और डॉक्टर्स को रोजगार मिलता है। आप पूछेंगे सड़क पर क्रिकेट खेलने से मैकेनिकों और डॉक्टर्स के रोजगार का क्या संबंध है? उत्तर यह कि संबंध है और गहरा संबंध है। इसको यों समझिये- जब बाजार की या मोहल्ले कॉलोनी की सड़कों पर क्रिकेट खेला जाता जाएगा तो लाख सावधानी के बावजूद क्रिकेट की गेंद किसी वाहन सवार या वाहन से टकराएगी। परिणामस्वरूप या तो सवार को चोट आएगी या वाहन दुर्घटनाग्रस्त होगा। सवार को चोट आती है तो डॉक्टर की बेरोजगारी दूर होगी और वाहन दुर्घटनाग्रस्त होता है तो बेचारे मैकेनिक को रोजगार मिलता है। ईश्वर को इसलिए ‘दयालु’ और ‘अन्नदाता’ कहा जाता है। मोहल्ले की सड़कों पर क्रिकेट खेलने की प्रेरणा देकर वह ‘जख्मी सवार’ और ‘दुर्घटनाग्रस्त वाहन’ के एपिसोड द्वारा दयालु और अन्नदाता का सीरियल दिखाता रहता है। वाह रे परमात्मा सिर्फ सड़क पर क्रिकेट के खेल में तूने कितने लोगों के लिए एम्पलॉयमेंट एक्सचेंज खोल दिया। सड़क पर क्रिकेट खेलने का दूसरा लाभ यह है कि इससे होने वाले शोर से निकटतस्थ पड़ोसी की नींद उचट जाती है वह सो नहीं पाता।

इस प्रकार सड़कों पर क्रिकेट ‘जागरण’ का संदेशवाहक है। मोहल्ले की सड़क पर क्रिकेट खेलकर यह भी संदेश दिया जाता है कि ‘जो सोवत है खोवत है, जो जागत है सो पावत है’।

तीसरा लाभ यह है कि इससे खेल के मैदान पर नहीं जाना पड़ता। इससे समय की बचत हो जाती है। वैसे भी हमारे यहां मैदान का उपयोग टॉयलेट के लिए किया जाता है। (हालांकि ‘कृपालु’ लोग कभी-कभी सड़क पर भी यह कृपा कर देते हैं) शायद इसलिए गांव में आज भी दिशा-मैदान जाने की परंपरा है। मोहल्ले की सड़क क पर क्रिकेट खेलने से एक तो अपने घर की चौकसी हो जाती है और दूसरे यह कि मैदान पर जाना ‘फॉरेन’ जाने की तरह है। इसलिए विदेश यात्रा का ‘समय’ और विदेश मुद्रा बच जाती है। वैसे भी सड़क की ऊबड़ खाबड़ और मैदान भी ऊबड़ खाबड़, जब दो ऊबड़-खाबड़ में ही चुनाव करना है तो अपने मोहल्ले या कॉलोनी की सड़क ही क्या बुरी। इसके अलावा मोहल्ले की सड़क पर क्रिकेट खेलने से क्रिकेट के ‘इनडोर गेम’ होने के उज्जवल अवसर हैं। आप पूछेंगे कि सड़क पर क्रिकेट इनडोर गेम कैसे? इसका उत्तर यह कि सड़क के इस बार घर का द्वार अर्थात ‘डोर’ है और सड़क के उस और या तो सड़क है या खुला है। बस सड़क को बीच में लेकर क्रिकेट की गेंद को ‘डोर’ के ‘इन’ कीजिए। इसे ही कहते हैं ‘इनडोर’। यह क्रिकेट के खेल में एक नए युग की शुरुआत है और श्रेय जाता है मोहल्ले की सड़कों पर क्रिकेट खेलने वाले होनहारों को।

हमारी सड़कों का एक अन्य उपयोग यह भी है कि इनसे गिल्ली डंडे के खेल की लोकप्रियता में भी वृद्धि होती है। सड़क के बीच में जो भी छोटा गड्ढा होता है उसी पर गिल्ली रखकर उसे डंडे से उछालने में आसानी होती है। इस प्रकार मैदान में जाकर गिल्ली के लिए अलग से छोटा गड्ढा नहीं खोदना पड़ता। हमारी सड़कों पर गड्ढे सदा सर्वदा सुलभ हैं। अतः गिल्ली-डंडा खेल को सड़क ने आनंददाई कर दिया है। इस प्रकार हमारी सड़कें क्रिकेट और गिल्ली-डंडा के लिये ‘टू-इन-वन’ का काम करती हैं।

हमारी सड़कों का अन्य उपयोग यह है कि इन गड्ढों से होने वाली दुर्घटनाओं और मौतों से भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्या का ‘समाधान’ होता है। जनसंख्या की समस्या से निपटने का यह सर्वाधिक कारगर उपाय है। हमारी सड़कें ‘माल्थस के जनसंख्या सिद्धांत’ को भी प्रमाणित करती हैं।

हमारी सड़कों का एक अन्य महत्वपूर्ण उपयोग यह है कि सड़कों पर गड्ढों के कारण कई बार गर्भवती महिलाओं का सड़क पर ही प्रसव हो जाता है। इस प्रकार सड़कें ‘ओपन मेटरनिटी वार्ड’ (खुले प्रसूति गृह) का काम करती हैं। ओपन यूनिवर्सिटी की तरह ओपन मेटरनिटी वार्ड भी तो होना चाहिए ना। आखिर ‘पारदर्शिता’ भी तो कोई चीज है।

प्रो. अज़हर हाशमी
32, इंदिरा नगर,
रतलाम (म. प्र.)
फोन : 07412-260221

(बैकग्राउंड फोटो राकेश पोरवाल के सौजन्य से )