मैं दीनदयालनगर हूं... : समस्याओं से मेरा गहरा नाता है, उपेक्षा ही मेरी पहचान है
शहर का प्रमुख इलाका दीनदयालनगर अपने नाम के साथ ही अपनी समस्याओं के लिए भी जाना जाता है। जानिए, खुद ‘दीनदयालनगर’ के ही शब्दों में।
नीरज कुमार शुक्ला
कभी प्रदेश के सबसे साक्षर शहर का तमगा हासिल करने वाले रतलाम शहर की पहली सबसे बड़ी कॉलोनी होने का सम्मान मेरे ही नाम है। मेरे लिए ही करीब चार दशक पूर्व मप्र हाउसिंग बोर्ड को विश्व बैंक ने उधार दिया था। मेरी पहचान जनसंघ और भाजपा के पितृपुरुष स्व. पं. दीनदयाल उपाध्याय के नाम से है। जी, हां ! मैं दीनदायलनगर हूं।
मैं सिर्फ एक कॉलोनी भर नहीं हूं, बल्कि यहां रहने वालों की सुख-सुविधाओं और मूलभूत जरूरतों से जुड़ी उम्मीद हूं। आप सभी सोच रहे होंगे कि- क्या मेरी पहचान बस इतनी सी ही है ? नहीं, जनाब ! मेरी पहचान समस्याओं और उपेक्षाओं से भी है। समस्याओं से मेरा गहरा नाता है और उपेक्षा ही मेरी प्रमुख पहचान है।
एक वक्त था (मेरी स्थापना का) शहर में सबसे चौड़ी सड़क मेरी ही थी। सड़क के दोनों तरफ चौड़ी-चौड़ी क्यारियों में पौधे लहलहाते थे और पेड़ झूमते थे। घरों और इन क्यारियों के बीच 8 से 10 फीट जगह भी हुआ करती थी। बगीचों के लिए लगभग सभी स्थानों पर पर्याप्त जगह भी छोड़ी गई थी, कुछ जगह बगीचे संवारे भी गए थे।
पेयजल पाइप लाइन और सीवरेज लाइन व्यवस्थित रूप से सबसे पहले मेरे हिस्से ही आई थी। मुझे यह बताते हुए खुशी होती है कि तब लोग बाहर से आने वाले अपने मेहमानों को मेरे (कॉलोनी) के दर्शन करवाने जरूर लाते थे क्योंकि तब मैं आज के जैसा कुरूप नहीं था। आज सिस्टम के लिए भले ही मप्र हाउसिंग बोर्ड बदनाम है लेकिन तब मेरी स्थापना के लिए उसके इंजीनियरों ने आधारभूत संरचना काफी अच्छे से तैयार की थी।
खुशी कम, ज्यादा गम
कहते हैं कि खुशी ज्यादा दिन नहीं रहती लेकिन मुसीबतें लंबी दूरी तय करती हैं। मेरा अब तक का व्यक्तिगत अनुभव भी यही है। जिन खाशियतों के कारण मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था, उन्हीं को अपनी आंखों के सामने मरते देख रूह कांप जाती है। ज्यादा कुछ नहीं, सिर्फ मुख्य सड़क ही देख लीजिए कि वह किस हाल में है। सीवरेज लाइन बिछाने वाले ने इसे जैसे चाहा, जितना चाहा वैसे और उतना ही छलनी कर दिया। मेरे वाशिंदे (रहवासी) रोज जूझते रहे। किसी से सुना था कि 60 लाख रुपए में सीमेंट-कांक्रीट की सड़क बनने वाली है। यह भी कहा गया था कि टेंडर भी हो चुका है। इंतजार की इंतहा हो चुकी है लेकिन न तो अभी तक टेंडर नजर आया और न ही सड़क बनी।
हड्डी-पसली एक होने से लेकर प्रभु मिलन तक की व्यवस्था
जिम्मेदारों को मक्कारी से फुर्सत नहीं मिलती, इसलिए जिसकी जितनी इच्छा हुई, उसने उतनी जमीन पर कब्जा कर लिया। किसी की दुकान सज गई है तो किसी के मकान की बाउंड्रीवाल अपनी हदे लांघ कर सड़क तक आ पहुंची हैं। कब्जा करने के मामले में जब कतिपय जिम्मेदार ही लिहाज न पालें तो भला जनता पर कोई कैसे लगाम कस सकता है। मेरे मुहाने पर (दीनदयालनगर के प्रवेश वाले रोड के नाले पर बनी पुलिया पर) नगर निगम की इंजिनियरिंग का मकबरा भी बना है। कहते हैं यह तभी हट सकता है जब कोई भगवान विश्वकर्मा जी से इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर आए। जब तक ऐसा नहीं होता, सभी को इसके आगे शीश नवाकर ही आगे बढ़ना है, अन्यथा हड्डी-पसली कब एक हो जाए या प्रभु मिलन हो जाए, कह नहीं सकते।
बच्चे-बूढ़ों की सुख-सुविधा जिम्मेदारों की बला से
मुझसे अपने छोटे-छोटे बच्चों की पीड़ा देखी नहीं जा सकती। वे न चाहते हुए भी घरों में कैद रहते हैं और मनोरंजन के नाम पर मोबाइल गेम तक सीमित रहते हैं। उनका शारीरिक विकास न हो, इसका पूरा बंदोबस्त हमारे ही कुछ ‘खास’ लोगों ने कर रखा है। बगीचों के नाम के नाम पर जो जगह बच्चों, बुजुर्गों सहित सभी के लिए छोड़ी गई थी वहां अब निजी मल्कियत हो गई है। बगीचों में पेड़-पौधों और बच्चों के लिए झूले आदि छोड़कर हर चीज है। कहीं मूर्ति विराजमान है तो कहीं कारों का विश्राम स्थल है। रही सही कसर लोगों की कथित आस्था ने धार्मिक स्थल में तब्दील कर पूरी कर दी है। सही भी है, बच्चों को तो एक दिन बड़ा होना ही है, ऐसे में उनके लिए खेलने-कूदने की स्थायी जगह रखने की जरूरत ही क्या है। गलियां हैं उनके खेलने के लिए। रही बात बुजुर्गों की तो उन्हें भी तो एक दिन दुनिया से जाना ही है। इसलिए उनकी सुविधा के लिए भी सोचना बेमानी ही है।
कोई ‘शाह’ महाराष्ट्र की तरह न कर दे ‘ठीकरा’
गंदगी से बजबजाती नालियों की खूबसूरती भला दूसरा क्या जाने। दूसरे इलाकों के लोगों को यहां से गुजरने में अगर बदबू आती है तो यह उनकी बला से। जरूर उनकी सूंघने की शक्ति अच्छी नहीं होगी। हमें और हमारे वाशिंदों को तो अब नालियों से आने वाली बदबू भी मोगरे की खुशबू जैसा अहसास कराती है। जगह-जगह प्लॉट और सड़कों पर जो कुछ भी आपको नजर आता है वह कचरा नहीं है, वह तो मेरे शृंगार की चीजें हैं जो मुझे खूबसूरत बनाए रखने के लिए नगर निगम द्वारा खास तौर पर छोड़ा गया है। सीवरेज लाइन जैसी ही है, हमें उसी हाल में स्वीकार करनी है अन्यथा कोई ‘शाह’ हमें भी महाराष्ट्र की तरह ‘ठीकरे’ में तब्दील कर देगा।
विकास के नाम पर मुझे किया खंड-खंड
बता दूं, कि- पहले मेरा वजूद नगर निगम के एक वार्ड के रूप में था लेकिन विकास के नाम पर अपने हित साधने के लिए लोगों ने मुझे दो हिस्सों में बांट दिया। अब मेरा एक हिस्सा वार्ड क्रमांक 19 तो दूसरा वार्ड क्रमांक 20 कहलाता है। भरोसा दिलाया गया था कि अगर मैं दो खंडों (वार्डों) में विभाजित हो जाऊंगी तो मेरे विकास की गति और तेज होगी, बजट में दोहरा मिलेगा लेकिन कुछ मामलों में यह कोरी कल्पना ही साबित हो रही है। मेरी मुख्य सड़क भी शायद इस लिए ही नहीं बन रही कि दोनों ही हिस्सों में काबिज रहे जनता के नुमाइंदों का अहम् टकरा रहा था। पहले जो जगह थाने के लिए आरक्षित बताई गई थी, वह भी किसी और की हो गई। नतीजनत दीनदयालनगर के नाम से थाना तो है लेकिन उसे कॉलोनी से देशनिकाला दिया जा चुका है।
मुंह दिखाने का संकट, योग्यता व चरित्र पर सवाल, आधी रोटी में दाल लेने की जुगत
पिछले सात साल से मेरे वाशिंदों की तरह ही मुझे भी उन लोगों का इंतजार था जो मेरी सूरत बदलने का वादा कर के गए थे लेकिन उसके बाद ऐसे मुहं फेरा कि अब मुंह तक दिखाने लायक नहीं रहे। एक बार फिर नगर सरकार चुनने की कवायद शुरू हो गई है। ‘कुर्सी के दीवानों’ ने फिर आसामन सिर पर उठा लिया है। मेरे दोनों ही धड़ों (वार्डों) में राजनीतिक दलों को एक भी योग्य व्यक्ति नजर नहीं आया जिस पर जनता भरोसा कर सके।
चार इंजिन की सरकार वाली पार्टी को मेरे अनारक्षित वार्ड में एक भी अनारक्षित योग्य महिला नहीं मिली। वहीं दूसरी पार्टी ने ऐसे व्यक्ति के घर में टिकट दे दिया जिस पर मकानों की सौदेबाजी में अनियमितता का आरोप है। दूसरे वार्ड में भी कमोबेश यही स्थिति है। यहां भी चार इंजिन की सरकार चलाने वाली फूल ब्रांड पार्टी को एक भी ऐसा योग्य व्यक्ति नहीं मिला जिसके चाल-चलन और नीयित को लेकर आरोप न लग रहे हों। वहीं दूसरी ओर पंजा ब्रांड पार्टी से टिकट पाने वाले के सामने अपनी पहचान का संकट है।
न विजन, न एजेंडा, पहचान का संकट भी
दोनों ही वार्डों में दोनों ही प्रमुख पार्टियों के प्रत्याशियों का वार्ड विकास को लेकर उपलब्धि का खाका खाली है। अफसोस की बात यह है कि दोनों के ही पास मेरे (कॉलोनी) के विकास को लेकर न तो कोई विजन है और न ही कोई एजेंडा। ऐसे में दोनों ही वार्डों में निर्दलीय आधी रोटी में दाल हथियाने की कोशिश में लगे हैं। इनमें एक पूर्व पार्षद हैं जो टिकट नहीं मिलने से अपनी पार्टी ने नाराज हैं किंतु उनकी राह में उनके अपने लोगों का बड़बोलापन ही मुसीबत बनते दिख रहा है। इसी तरह दूसरे वार्ड की निर्दलीय के सामने भी पहचान का संकट है क्योंकि उन्हें जानने वालों की संख्या बहुत ही कम है।
अब फैसला आपका, क्योंकि जनता ही जनार्दन है
चुनाव है, एक नई उम्मीद फिर जागी है लेकिन जितने भी प्रत्याशी हैं उनकी राजनीतिक एप्रोच, बुद्धि-बल पर संदेह है। मैं तो मतदान कर नहीं सकता लेकिन आप जनता-जनार्दन है और अपना और मेरा अच्छा-बुरा समझते हैं। इसलिए जो भी फैसला लें, सोच-समझ कर ही लें, अन्यथा पूर्व की तरह अगले पांच साल फिर हमारे हिस्से आंसू और समस्या ही आएगी। मतदान जरूर करें, क्योंकि यह आपका संवैधानिक अधिकार है और आपके मतदान नहीं करने से उन्हें मौका मिल सकता है जिन्हें हमारी फिक्र नहीं, सिर्फ ‘अवसर’ की तलाश है। एक बात और ध्यान रखिए, कि जो भी वोट मांगने आ रहा है उससे उसका योगदान, योग्यता, राजनीति और नगर निगम के काम की समझ और उनका एजेंडा व प्राथमिकता के बारे में सवाल जरूर कीजिए।
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