Neer-ka-Teer : 'रसूख' की प्रॉपर्टी पर आई 'आंच' तो शुरू हो गई लामबंदी, जिम्मेदार भी कहने लगे- अवैध को (अ)वैध होने दो, ये सब तो 'दूध के धुलें हैं', इनका कोई नुकसान न हो

Neer-ka-Teer : एक 'खुली आंख वाले' ने हमारी 'रातों की नींद' छीन ली है और 'दिन का चैन' भी। हम रतलामी हैं, इतनी जल्दी हथियार नहीं डालेंगे।

Neer-ka-Teer : 'रसूख' की प्रॉपर्टी पर आई 'आंच' तो शुरू हो गई लामबंदी, जिम्मेदार भी कहने लगे- अवैध को (अ)वैध होने दो, ये सब तो 'दूध के धुलें हैं', इनका कोई नुकसान न हो

नीरज कुमार शुक्ला @ एसीएन टाइम्स

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि- 'न बुरा देखो', 'न बुरा सुनो' और 'न बुरा कहो'। उनकी सीख पर हम आंखें मूंद कर अमल कर रहे हैं। अगर किसी की आंख खुल जाए या खोलने की हिमाकत कर भी ले तो सारे काम छोड़कर उन्हें बंद कराने की कवायद शुरू कर देते हैं। उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि- 'जैसे दूसरे आंखें बंद किए रहे, वैसे ही आप भी बंद कर लो। जैसा बुरा (गलत) पहले होता रहा है, वैसा ही अब भी होते रहने दो। एक दिन यही 'बुरा' स्वतः ही 'अच्छा' हो जाएगा।' हम रतलामवासी इसके आदी हैं। इसलिए जैसे ही कहीं भी, कुछ भी बुरा होता है तो उनकी आंखें खुद-ब-खुद मुंद जाती हैं। यह सबक हमने जन्म घुट्टी के रूप में पी रखा है। (Neer-ka-Teer)

हमारी आंखें तब तक नहीं खुलतीं जब तक कि हमारा बड़ा नुकसान न हो जाए। ये आंखें हमारे 'चरित्र' के अनुरूप ढल चुकी हैं। हमारा चरित्र 'गलत को गलत' और 'अवैध को अवैध' कहने की इजाजत नहीं देता, इतना साहस भी हममें नहीं है। हमारे लिए तो 'गलत ही सही' है और 'अवैध ही (अ)वैध' है। राशन हो या फिर प्रॉपर्टी, हम सबकुछ हजम कर जाते हैं और डकार भी नहीं लेते। "दाल-बाटी' जैसा गरिष्ठ भोजन पचाने में हम इतने अभ्यस्त हैं कि 'गलत' को भी आसानी से पचा लेते हैं और 'अवैध' को भी।

हमने एक सबक और पढ़ रखा है। यह कई जगह लिखा भी देखा जा सकता है, कि- 'राष्ट्र की हर सार्वजनिक संपत्ति आपकी अपनी है, इसे नुकसान न पहुंचाएं।' इस पर भी हम शब्दशः अमल करते हैं। जहां भी कोई सरकारी या सार्वजनिक संपत्ति नजर आती है तो बगैर देर किए उस पर अपना शामियाना तान देते हैं। यही बाद में हमारा स्थायी आशियाना बन जाता है। जब तक चाहो उपयोग करो और मनभर जाए या नकदीकरण की आवश्यकता महसूस हो तो बेच दो। इसलिए हम न तो खुद इसे नुकसान पहुंचाते हैं और न ही किसी को पहुंचाने देते हैं। अब जो चीज राष्ट्र की है, वह अपनी ही है और अपनी चीज को बेचने में भला क्या हर्ज है?

हम सौदा करते अपने 'जमीर' तक को दांव पर लगा देते हैं, फिर जमीन की क्या बिसात। जमीन, निजी है या सरकारी, इसकी फिक्र नहीं करते। जहां जगह मिली, डेरा डाल दिया। जिन्हें यह देखने की जिम्मेदारी मिली है वे भी 'बुरा नहीं देखने' के सबक पर अमल करते हुए आपनी आंखें मूंद लेते हैं। यह 'अनदेखी' भी 'बेमोल' नहीं होती। इसके लिए उन्हें 'मनचाहा मोल' मिलता है हमें हमारे 'गलत को सही' और 'अवैध को (अ)वैध' ठहराने का अवसर। किसी ने 'विपदा' में अवसर तलाशा तो हमने 'संपदा' में। कोई आंखें 'मूंदने' की वजह से 'लाभान्वित' हुआ तो कोई 'खुली' रखने के कारण। यानी 'सबका साथ - सबका विकास' हुआ।

आप पूछ सकते हैं कि- यह इतनी आसानी से हो कैसे जाता है ? इसका जवाब है- 'रसूख' और 'गांधी जी की तस्वीर' से। आप 'रसूखदार' हैं तो बे-हिचक उसका इस्तेमाल कीजिए और नहीं है तो 'गांधी जी की तस्वीरों' का सहारा लीजिए। वैसे दूसरा वाला उपाय ज्यादा कारगर, भरोसेमंद, और टिकाऊ हो सकता है। कोई इसे भ्रष्टाचार कहे तो कहता रहे, हमारे लिए तो यही 'शिष्टाचार' है।

'शिष्टाचारी' हमेशा सुकून में रहते हैं लेकिन इन दिनों यह 'सुकून' काफूर है। एक 'खुली आंख वाले' ने हमारी 'रातों की नींद' छीन ली है और 'दिन का चैन' भी। अब तक जो लोग 'शिष्टाचार' के लिहाज की चादर ओढ़े बैठे थे उनकी भी आंखें 'खोल दी' गई हैं और वे भी डरा देने वाली 'अंगड़ाई' ले रहे हैं। सुना है किराये पर बुल्डोजर भी मंगवाए गए हैं। 'रसूख की प्रॉपर्टी पर आंच' (Neer-ka-Teer) भी आने लगी है। हम रतलामी हैं, इतनी जल्दी हथियार नहीं डालेंगे। हम लामबंद हो ही गए हैं। सब मिलकर पहले दबाव बनाएंगे, दाल नहीं गली तो 'ऊपर तक' जाएंगे। खुली आंखें 'बंद' नहीं हुईं तो 'बंद आंखों वाला' ले आएंगे। इस तरह हम एक बार फिर 'काजल की कोठरी' में रहकर भी 'दूध में नहाए' हुए 'उजले' हो जाएंगे।

डिस्क्लेमर

उपरोक्त आलेख में प्रस्तुत विषय वस्तु लेखक की कल्पना और निजी विचार हैं जो सिर्फ स्वस्थ मनोरंजन के लिए है। इसका रतलाम शहर और जिले में (अ)वैध निर्माण पर प्रशासन द्वारा की जा रही कार्यवाही और तोड़-फोड़ से कोई सरोकार नहीं है।

एडीटर - एसीएन टाइम्स . कॉम

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