समीक्षा : आशीष दशोत्तर का ग़ज़ल संग्रह ‘सम से विषम हुए’ सख्त राहों पर शब्दों का बिंदास सफरनामा- डॉ. प्रकाश उपाध्याय
अपने वरिष्ठजनों का स्नेह और आशीर्वाद मिलता है तो हौंसला भी मिलता है और यह सुखद भी लगता है कि जिस राह पर चलने की कोशिश कर रहे हैं,वह सही है। इंक पब्लिकेशन द्वारा सद्य: प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह 'सम से विषम हुए' पर हिंदी के वरिष्ठ ग़ज़लकार और साहित्यविद् डॉ. प्रकाश उपाध्याय ने अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी प्रदान कर जो स्नेह प्रदान किया है वह एक सनद है। डॉ. उपाध्याय की यह समीक्षात्मक टिप्पणी आपकी नज़र-
हालात की सम-विषम राहों के उतार-चढ़ावों के बीच अपने बिंदास सफर पर निकली ग़ज़ल का जीवंत सफरनामा है "सम से विषम हुए" ग़ज़ल संग्रह। युवा ग़ज़लकार आशीष दशोत्तर के इस सद्यः प्रकाशित संग्रह में कुल 120 ग़जलें हैं। आशीष की ये ग़जलें बकौल उनके "एक बेहतर दुनिया के ख्वाब को शब्दों में ढालने की कोशिश है।" इस कोशिश में वे किन सीमाओं तक पहुँचने में कामयाब रहे हैं- इस तथ्य की बानगी बेहतरीन व पुख्ता रूप से प्रस्तुत करती हैं- ये ग़जलें।
समकालीन यथार्थ को गहराई से आत्मसात कर उसके आशय को रचनात्मक कैनवास पर रूपायित करना आज के सृजन की अनिवार्यता बन चुका है। अपने इर्दगिर्द के परिवेश से उपजी चुनौतियाँ कलमकार को जहाँ एक ओर शिद्दत से यथास्थितिवाद के खिलाफ लड़ने की ताकत देती हैं, तो वहीं दूसरी ओर अंतर्मन की वेदना को जुबान देते हुए सृजन की सार्थकता की तलाश में भी मददगार बनती हैं।
मौजूदा दौर में हमें अनेक नवोदित कलमकारों की रचनाएँ- गीतों, ग़ज़लों और कविताओं की शक्ल में देखने को मिल रही हैं। युवा कलम की ये सृजन-बयार निश्चित ही हिंदी रचना जगत के लिये एक बेहद ताज़गीभरा शुभ संकेत है। इन तमाम उदीयमान रचनाकारों के बीच आशीष दशोत्तर जैसे विचारशील व सृजनात्मकता का व्यापक फलक ग्रहण करने वाले युवा कवि व ग़ज़लकार न केवल अत्यंत प्रभावी ढंग से अनवरत लिख रहे हैं, बल्कि अपनी एक सर्वथा पृथक व विरल पहचान भी स्थापित कर चुके हैं।
आशीष के ताज़ा ग़ज़ल संग्रह "सम से विषम हुए" की ग़ज़लों पर विमर्शपरक दृष्टिपात् करने पर स्पष्ट होता है कि ये तमाम ग़जलें काफी सहजता लिये हैं। इनमें यथेष्ट संप्रेषणीयता है। इन ग़ज़लों में नानाविध अनुभूतियों के रंग लेकर रची गई खूबसूरत इंद्रधनुषी छवियाँ हैं। ये ग़जलें पाठकों को संवेदनाओं और प्रभावों के एक विरल अंतराल में ले जाती हैं। इतना ही नहीं, भीतर की दुखती रगों पर अंगुली रखती हुई, उस क्षोभ के लिये भी रास्ता बनाती है जो मौजूदा समय की नाना विसंगतियों और विरोधाभासों की उपज है।
आशीष की ये ग़ज़लें बखूबी सम-विषम जीवन अनुभवों के वैविध्यपूर्ण परिदृश्य प्रस्तुत करती हैं। प्रेम, स्नेह, हर्ष, विषाद, वेदना, अश्रु, उदासी, घुटन, संत्रास, रोष, विरोध व विक्षोभ जैसे अनेक मनोभावों को रूपायित करती हुई, उस उजास को भी आविष्कृत करती हैं, जो कठिन जीवन संघर्षों के बीच विकसित होते आशावाद से फूटता है। इन ग़ज़लों में- पेड़, नदी, परिंदे, आसमाँ, तितली, जुगनू, फूल, खुशबू, पतझर, बहार और बरसातें हैं, तो वहीं दूसरी ओर आग, आईने, पत्थर, जुल्म, हिंसा, नफरतें, बगावत और खुद्दारी के तेवर हैं। साथ ही साथ अनेक अश्रुभीगी स्मृतियाँ हैं, महानगरीय जीवन का विद्रूप है, दिन-ब-दिन विघटित होते रिश्तों और परंपरागत मूल्यों की टूटनभरी कसक है, विस्मृत गाथाएँ हैं, निःशब्द पीड़ाएँ हैं, मौजूदा असंगत स्थितियों और विरोधाभासों के खिलाफ कसमसाता आक्रोश है तथा प्रतिकूल हालातों के अँधेरे को चीरती प्रबल जिजीविषा की चमकती लौ है- और हैं इन सभी को रूपांकित करते विविध शब्द चित्र व ध्वनि बिम्ब।
"सम से विषम हुए" संग्रह की ग़ज़लों के अनेक परिदृश्य सोच के आयाम रचते हुए पाठकों का खासा ध्यान अपने तईं आकृष्ट करते हैं...
ये भी नक्शा तेरे घर का नायाब है
कच्ची बुनियाद है, ऊँची मेहराब है
बहते दरिया कहाँ से कहाँ तक गए
कैद अपनी अना में ही तालाब है
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ग़म-खुशी, आँसू-हँसी, अपने पराए सब तो हैं
रंग बिखरे हैं हज़ारों ज़िंदगी के रंग में
दुश्मनी को भूल जाएँ दो घड़ी के वास्ते
क्यूँ न हम-तुम डूब जाएँ दोस्ती के रंग में
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ग़ज़लों पे मेरी मुझको मिली दाद सुनेगा
पर कौन मेरे दर्द का अनुवाद सुनेगा?
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दुनिया की नज़र में है जो इंसान भला सा
सदियों से कतारों में खड़ा है वो ठगा सा
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नफ़रतें, हत्या, बगावत, जुल्म, हिंसा देखकर
ज़िंदगी गुजरेगी आख़िर और क्या क्या देख कर।
भीड़ भी है, उलझनें भी, ख्वाहिशें भी, चाह भी
आदमी हैरतजदा है खुद को तनहा देख कर।
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है कौन यहाँ जिसको अवसाद नहीं है
इक तू ही अकेला कोई अपवाद नहीं है
होलिका है दुनिया, कोई प्रहलाद नहीं है
होली का जो मकसद है, इसे याद नहीं है
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जिंदगी जब भी मुस्कुराई है
जाने क्यों आँख डबडबाई है
ये जो विरसे की चारपाई है
मेरे हिस्से में यही आई है
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तमगों से भला क्या मेरा ईमान बिकेगा
मुमकिन नहीं मेरे लिये लहजे को बदलना।
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ये परिंदे, ये तितली, ये गुल औ धनक
इनको रँगता यहाँ कौन रंगरेज है?
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फूल, तितली, नर्म शाखें, अब कहाँ ठंडी हवा
हसरतों का एक जंगल, दूर तक फैला हुआ
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छोटे दिये का कोई बड़प्पन भी देख ले
देकर सभी को रोशनी बेनूर हो गया।
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खुशहाल जिंदगानी के हालात चाहिए
अम्नो अमा, सुकून के लम्हात चाहिए
आने को बेकरार है, फस्ले-बहार फिर
सूखी हुई ज़मीन को बरसात चाहिए।
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कागजों पर जो नदी फैली हुई है दूर तक
उस नदी में अब सियासत नाव भी चलावाएगी।
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दुनिया में अब न प्यार का रिश्ता तलाश कर
बेनूर आईने में न चेहरा तलाश कर।
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ऐसी हो जाए आपकी दुनिया
जैसे खिलते गुलाब की दुनिया।
देखना खुद ही चल के आएगी
धूप के बाद छाँव की दुनिया।
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कुल मिलाकर आशीष की ग़जलें अपने रचनागत कौशल तथा निरंतर परिपक्व होती विचार व भाव दृष्टि के बल पर नवीन संभावनाओं के आयाम तलाशती दिखाई देती हैं।
निज अनुभूतियों के विविध रंग लेकर सुंदर ग़ज़लों के धनक रचने वाले युवा कलमकार आशीष इसी तरह निरंतर सृजनरत रहें और खूब बेहतर और सार्थक लिखते रहें। सस्नेह अकूत मंगल कामनाएँ!!