पुस्तक समीक्षा : ‘क्या भूलूं क्या याद करूं, मैं तो जियूं उन स्मृतियों को’ समाज को आदर्श जीवन और राष्ट्र के प्रति समर्पित जीवन जीने की प्रेरणा देता संस्मरण- डॉ. खुशबू जांगलवा

साहित्यकार डॉ. विकास दवे पर प्रकाशित पुस्तक ‘क्या भूलूं, क्या याद करूं, मैं तो जियूं उन स्मृतियों को’ (विकास यात्रा अभिनंदन ग्रंथ) की समीक्षा पढ़ें डॉ. खुशबू जांगलवा के शब्दों।

पुस्तक समीक्षा : ‘क्या भूलूं क्या याद करूं, मैं तो जियूं उन स्मृतियों को’ समाज को आदर्श जीवन और राष्ट्र के प्रति समर्पित जीवन जीने की प्रेरणा देता संस्मरण- डॉ. खुशबू जांगलवा
डॉ. विकास दवे की विकास यात्रा...।

डॉ. खुशबू जांगलवा

मेरी लेखनी जैसे अपनी बात कहने को आतुर हो, जो इस पवित्र यज्ञ की समिधा है या कुछ इस प्रकार कहें तो...

स्वरूप से सुषमा

स्वभाव से सौम्या

अस्तित्व से समर्पिता

ममत्व की प्रतिमा

...और एक ही पंक्ति में संपूर्ण अस्तित्व सिमट भी जाता है और विशिष्ट व्यक्तित्व प्रकट भी हो जाता है। वह हैं आदरणीय श्री डॉक्टर विकास जी दवे (निर्देशक- मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी, भोपाल) की अर्धांगिनी, धर्मपत्नी, प्रिया श्रीमती सुनीता दवे जी हम सभी की भाभी जी। उनके प्रेममय, त्यागमय, समर्पित जीवन को उनके द्वारा लिखित संस्मरण के माध्यम से जानने का अवसर प्राप्त हुआ और वह इस प्रकार हृदय को छुआ कि समीक्षा करना स्वाभाविक ही बन गया।

जैसे आदरणीय भाई साहब सरल व्यक्तित्व के धनी समझ जाते हैं, भाभी जी को भी संग का रंग लगा कह सकते हैं या यूं समझें कि भाभी जी की सरलता भी भाई साहब में समा गई और जैसे दो देह एक आत्मा से हो गए। दोनों ही अपने विशिष्ट व्यक्तित्व की खुशबू से भरे हुए हैं। भाभी जी के द्वारा लिखित संस्मरण का शीर्षक ‘क्या भूलूं, क्या याद करूं, मैं तो जियूं उन स्मृतियों को’ (विकास यात्रा अभिनंदन ग्रंथ) में प्रकाशित हुआ। यह जैसे मात्र आलेख या संस्मरण भर नहीं है  अपितु प्रेम भरी पाती-सी अनुभूति करवाता है। प्रचलित पंक्ति है कि एक सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री का साथ होता है। इस में कोई संदेह नहीं वह माता, पत्नी, बहन आदि हो सकते हैं। एक मां के गर्भ से जन्म लिया, एक पत्नी के रूप में भी स्त्री का संबंध और प्रतिभाशाली पुत्री का जन्म हो जाए तो फिर मां सरस्वती, लक्ष्मी और मां दुर्गा विभिन्न स्वरूपों में एक स्त्री ही होगी।

किसी भी साहित्यिक रचना का शीर्षक ही संपूर्ण रचना का शीर्ष होता है। ‘क्या भूलूं, क्या याद करूं? मैं तो जियूं उन स्मृतियों को’ की बात करें तो कहते हैं ना कि याद उसकी आती है जिसे भूला जाता,  किंतु जो सदा, हर पल स्मृतियों में साथ रहता है फिर याद करने का तो प्रश्न ही नहीं आता, क्योंकि आदरणीय भाई साहब डॉक्टर विकास दवे जी का अधिकांश समय अपने कार्यस्थल मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी भोपाल व पूरे मध्यप्रदेश में साहित्यिक गतिविधियों कार्यक्रमों में व्यतीत होता है। सामान्यतः सोशल मीडिया के माध्यम से वे कार्यक्रमों की जानकारी सीधे सांझा करते है।

आलेख के अनुसार भाभी जी भी कैसे वियोग में भी संयोग को जीते हुए एक सशक्त नारी की तरह परिवार की जिम्मेदारियां का निर्वाह पातिव्रत्यधर्म को पालन करती हुई प्रतीत होती हैं। प्रथम पंक्ति में आप लिखती हैं कि ईश्वर ने मुझे अनुपम उपहार दिया है विकास जी के रूप में कितना आनंदित करने वाला भाव है कि ईश्वर के द्वारा प्राप्त उपहार जो कि पति के रूप में अनमोल है। एक ऐसा हृदय, जैसे पुष्प की कली के समान कोमल मना हो और वहीं भारतीय परंपराओं से घिरा मन हो।

संस्मरण का स्मरण : भाभीजी ने संस्मरण में अपने निजी प्रसंग को कितना सरलता से सब के समक्ष रखा जो कि आज की पीढ़ी के लिए सीधे एक सीख और संदेश देता है। एक पंक्ति जो हृदय तक जाती है कि ऐसा परिवार हो जहां घर के मुखिया दादा-दादी, काका-काकी और बुआ आदि रिश्तों से भरपूर हो। जैसे संस्कारों की पाठशाला के सभी भिन्न-भिन्न कालखंड हों और वहां एक बच्ची का जन्म हुआ। वह है आदरणीय श्रीमती सुनीता दवे जी।

पैकेज को वेटेज न दें, व्यक्ति को महत्व दें : व्यक्ति के गुण, व्यक्ति और कृतित्व को सर्वोपरि माना। उनकी दृष्टि में उनके पति जैसे व्यक्ति, गुण और कृतित्व की त्रिवेणी हैं। ये उनकी सादगी भरी निगाहों की सृष्टि है। आरंभ में वे लिखती हैं कि उनकी पहली मुलाकात अपने होने वाले पति विकास जी से 20 नवंबर 1994 को होती है। सुनीता जी ने भावुक हृदय से अपनी लेखनी को चलाया है। वह सुंदर दृश्य जो आजकल की पीढ़ी में जैसे कहीं खो गया हो, सुनीता जी के घर लड़के वालों का आना देखना, लज्जा के वसन ओढ़े चाय की ट्रे लेकर उनका सबके बीच जाना। संस्कारित परिवार का सुंदर चित्र हमारे समक्ष चित्रित हो जाता है। सामूहिक परिवार में दस-ग्यारह भाई-बहनों का होना।

एक घर में वैवाहिक प्रसंग से प्रारंभ होकर विवाह से पूर्व मिलना। दो परिवारों का रिश्ता पक्का करना, जिसे खरी-पक्की करना कहते थे। वही परंपरागत पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित विचारों वाला दादाजी का स्वभाव। विवाह से पूर्व लड़का, लड़की नहीं मिल सकते, ना एक-दूसरे से बोल सकते।  ऐसी अवस्था में उनका सम्मान भी रखना और मर्यादाओं का पालन भी करना आदि।

परिवारजन द्वारा जैसे-तैसे उनको मनाना, बीच आंगन में खड़े होकर मुश्किल से साठ मिनट में जीवन भर के साथ का तय हो जाना। वर्तमान पीढ़ी को एक संदेश है। आज जरा-जरा बात में विवाह से पूर्व एक-दूसरे से मोबाइल से बात कर करके इतना अधिक एक-दूसरे को समझ जाना कि सगाई तोड़ने का भी कार्यक्रम जल्दी हो जाना। वही सुनीता जी अपनी परंपराओं की ओढ़नी ओढ़ जैसे आंगन में खड़ी विकास जी से हूं, हां करते हुए अपना हृदय एक ही बार में दे बैठीं। शायद यह आजकल के विवाहों से अलग विवाह रहा। ऐसा वैवाहिक जीवन है जिसे दोनों ने आज तक बडी ही समझ और अटूट प्रेम से समेट कर रखा है। इधर, भाई साहब द्वारा संपूर्ण जीवन के प्रण से सुनीता जी को पहले से ही अवगत कराना कि विवाह पश्चात भी वे अपने जीवन को राष्ट्र को समर्पित कर जीते रहेंगे और सुनीता जी उनकी शक्ति बनकर उनके इस महायज्ञ में उनका साथ देंगी आदि। हुआ भी यही, सुनीता जी ने कभी भी सामान्य स्त्रियों की तरह अपनी कोई मांग न रखी।

संस्मरण की एक-एक पंक्ति एक-एक शब्द समर्पण और त्याग की सुवास से सुवासित है। यह संस्मरण हर युवक-युवती को वाचन करना चाहिए जो सिर्फ मैं और मेरा का, पैकेज को वेटेज या लव मैरेज या लिव इन रिलेशनशिप के चक्रव्यूह में अपने आप को फंसाकर आधुनिकता की आंधी में भटक रहें हैं। संयुक्त परिवार एक परंपरा है, रूढ़ियां नहीं हैं। विवाह परमात्मा के द्वारा बनाया गया कोई दुर्घटना न है, संयोग है। शिक्षा कोई जॉब का पैकेज नहीं है, सशक्त और संस्कारित इंसान बनाने की विद्या है।

जहां एक ओर सुनीता जी की सरलता और दूसरी ओर डॉक्टर विकास जी की समझ और परिवार की सहमति ने इस मुलाकात को विवाह के अंजाम तक पहुंचाया और विवाह उपरांत सुनीता जी को आगे की पढ़ाई का अवसर प्रदान किया। डॉ. विकास जी ने सुनीता जी को मात्र घर सजाने या जिम्मेदारियों को उठाने के लिए नहीं वरन उनके व्यक्तित्व के विकास को भी ध्यान में रखते हुए उन्हें उच्च शिक्षा का अवसर प्रदान किया और ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन, एम. फिल. आदि करने को प्रेरित किया। फिर प्यारे से बच्चों (हार्दिक और हर्षिता) का जन्म होना आदि-आदि।

कुछ एक प्रसंग को लिखते हुए सुनीता जी की आंखों से अश्रु की धारा बहती हुई महसूस कर सकेंगे। जीवन के सुख-दुख के आरोह-अवरोह के क्रम में संयोग के बाद वियोग भी आता है। जो आज तक चल रहा है। विकासजी राष्ट्र के प्रति समर्पित व्यक्तित्व है जिसके चलते तब भी उनका राष्ट्र प्रेम बना रहता और आज भी भ्रमण होता रहता है। ऐसे समय सुनीता जी वियोग में स्वयं में सशक्त नारी का प्राकट्य कर स्वयं को व परिवार को संभाले रहती है। आपने इस संस्मरण में कई  भावनात्मक प्रसंगों को व्यक्त किया। जैसे एक भारतीय नारी द्वारा अपने पति को सर्वोपरि मानना, पति में मित्र, सहयोगी, और गुरु आदि के भी दर्शन करती है सामान्यत देखा जाता है कि पति अगर उच्च पद पर प्रतिष्ठित हो तो पत्नी को स्वाभाविक पद का मद आ जाता लेकिन आदरणीय भाभी जी बड़ी ही सादगी से भरपूर हैं, वे यदा-कदा जहां कार्यक्रमों में उपस्थित होती भी हैं तो स्वाभाविक ही उनकी सरलता, सादगी और सौम्यता आकर्षित कर लेती हैं।

इस प्रकार निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि सम्पूर्ण संस्मरण समाज को एक आदर्श जीवन और राष्ट्र के प्रति समर्पित जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान करता है। 

पुस्तक का नाम : विकास यात्रा ( अभिनंदन ग्रंथ: डॉक्टर विकास दवे)

शीर्षक : क्या भूलूं क्या याद करूं, मैं तो जियूं उन स्मृतियों को

लेखिका : सुनीता दवे इन्दौर (म. प्र.)

संपादक : डॉ. कविता भट्ट, 'शैलपुत्री'

प्रकाशक : संदर्भ प्रकाशन, भोपाल (म. प्र.)

(समीक्षक चित्रकार और लेखिका हैं जो यज्ञ माँ कला एवं साहित्य निलय, रतलाम (म. प्र.) की निवासी हैं)