रामकृष्ण परमहंस जयंती पर विशेष : रोमां रोला के चिंतन में रामकृष्ण परमहंस... जानिए- एक यूरोपियन जाति में जन्मे नोबेल पुरस्कार विजेता इतिहासकार के विचार

आज फुलेरा जयंती है और आज ही के दिन पश्चिम बंगाल के कमारपुकुर गांव में स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जन्म हुआ था। भले ही रामकृष्ण परमहंस किसी पाठशाला में न गए हों लेकिन उनके ज्ञान और विचारों ने उन्हें आध्यात्मिक गुरु बना दिया। जानिए- एक इतिहासकार के उनके बारे में विचार।

रामकृष्ण परमहंस जयंती पर विशेष : रोमां रोला के चिंतन में रामकृष्ण परमहंस... जानिए- एक यूरोपियन जाति में जन्मे नोबेल पुरस्कार विजेता इतिहासकार के विचार
स्वामी श्री रामकृष्ण परमहंस जी।

श्वेता नागर

'कदाचित् बिरले ही मूल स्त्रोत तक पहुँचने का यत्न करते हैं। बंगाल के इस ग्राम्य वासी ने अपने हृदय की वाणी को सुना था। उसे सुनकर वह अंतर्वर्ती समुद्र के पथ का अनुसंधान करने के लिए बढ़ा था। वहीं समुद्र के साथ उसका मिलन हुआ और उपनिषद की यह वाणी सिद्ध हुई'-

"मैं ज्योतिर्मय देवताओं की अपेक्षा भी प्राचीन हूँ। मैं सत्ता की प्रथम संतान हूँ। मैं अमरत्व- शोणितवाही धमनी हूँ।"

उपरोक्त दिव्यता से परिपूर्ण भाव दिव्य महापुरुष श्री रामकृष्ण परमहंस के प्रति श्रद्धा-सक्त होकर पाश्चात्य दार्शनिक, विद्वान, महान नाटककार और फ्रेंच साहित्यकार रोमां रोला के हैं जो उन्होंने रामकृष्ण परमहंस पर 1928 में लिखी अपनी पुस्तक 'रामकृष्ण की जीवनी' में अभिव्यक्त किए हैं।

उल्लेखनीय है कि रोमां रोला को अपनी पुस्तक 'ज्यां क्रिसतोफ' पर साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। रोमां रोला का नाम विश्व इतिहास में उन दार्शनिक साहित्यकारों में अमर रहेगा, जिन्होंने साहित्य के माध्यम से विश्व की संपूर्ण मानवजाति को परस्पर एकता, शांति और बंधुत्व का संदेश दिया। 'धर्म' विश्व की सभी मानव सभ्यता को चिंतन और चेतना का प्रकाश देने वाला दीप है इसलिए रोमां रोला ने स्वयं को किसी एक धर्म के सिद्धांतों के पिंजरे में कैद न कर, उन्मुक्त गगन के उस जिज्ञासु पंछी की तरह उड़ान भरना पसंद किया जिसने भौगोलिक और सांस्कृतिक सीमा रेखा को पारकर हर उन महान और उदात्त विचारों को आत्मसात् किया। जिसने मानव जीवन को प्रकृति की चैतन्यता से साक्षात्कार कराया।

इसका प्रमाण है स्वयं रोमां रोला का जीवन, जिन्होंने उस समय की सभ्य और उच्च कही जाने वाली यूरोपियन जाति में जन्म लिया लेकिन उन्होंने कभी इसका दंभ न पालते हुए पूर्व की सभ्यता के दर्शन और चिंतन को समझने और समझाने के लिए गहन अध्ययन किया। वेदों, उपनिषदों और महान भारतीय चिंतकों की वाणी को पश्चिम की सभ्यता तक पहुंचाने का कार्य भी किया और इसलिए उन्होंने रामकृष्ण परमहंस के अध्यात्म , चिंतन और विचारों से विश्व के दूसरे कोने यानी पश्चिम की सभ्यता को भी परिचित करवाया।

निश्चित तौर पर तर्क और ज्ञान से भरपूर मस्तिष्क होने के साथ ही एक प्रेम और करुणा से भरा हृदय ही महान श्री रामकृष्ण परमहंस के व्यक्तित्व को समझ सकता है और रोमां रोला का व्यक्तित्व तर्क, ज्ञान, प्रेम और करुणा का संगम था क्योंकि बहुत ही आश्चर्य की बात है कि रोमां रोला कभी भी भारत नहीं आए लेकिन भारतीय साहित्य और दर्शन को उन्होंने इतना पवित्र भाव से अध्ययन किया कि विश्वास करना कठिन हो जाता है कि कैसे वे भारतीय संस्कृति और अध्यात्म पर इतनी प्रामाणिक और भावपूर्ण अभिव्यक्ति अपने लेखन में लेकर आ गये कि सब कुछ सजीव हो उठता है। लेकिन इसके साथ ही रोमां रोला ने श्री रामकृष्ण परमहंस पर लिखी अपनी पुस्तक में ईमानदारी से इस बात को भी स्वीकारा है कि 'पश्चिमी देशवासी होने के कारण जिस स्वतंत्र विचार-बुद्धि का मेरे अंदर जन्म हुआ है, उसका भी मैंने परित्याग नहीं किया है। सभी के विश्वासों के प्रति मैं श्रद्धा रखता हूँ किंतु मैं कभी भी उन्हें अपना मत नहीं कह सकता।'

रोमां रोला अपने इस विचार के कारण ही श्री रामकृष्ण परमहंस के निकट हो जाते हैं क्योंकि रामकृष्ण परमहंस ने अपने जीवन में सभी धर्मों, संस्कृतियों और विचारों का स्वागत किया, उन्हें आत्मसात् किया और ईश्वर से एकाकार कराने वाले हर पथ को अपना माना। लेकिन उनका स्वभाविक मत था कि जो जिस भाव से ईश्वर को अपने निकट पाता है उसे उसी भाव में रहने दो, उस पर अपना मत या विश्वास लादने की चेष्टा नहीं करना चाहिए। इस संबंध में केशवचंद्र सेन से उनका  वार्तालाप यही सिद्ध करता है जिसका उल्लेख रोमां रोला ने अपनी पुस्तक रामकृष्ण की जीवनी में किया है।

ईश्वर के स्वरूप और उनके अस्तित्व पर तर्क और वाद-विवाद में लीन रहने वाले केशवचंद्र सेन को रामकृष्ण देव कहते हैं, 'तिरस्कार और परनिंदा का यह भौंकना बंद कर दो। परम सत्ता के हाथी को सब पर अपने आशीर्वाद की घोषणा करने दो। तुम्हारे अंदर भी वह शक्ति विद्यमान है, क्या तुम उसका उपयोग करोगे? अथवा केवल दूसरों को दोष देकर व उनका तिरस्कार करके ही अपना जीवन नष्ट कर दोगे?

'रामकृष्ण परमहंस के इन शब्दों का केशवचंद्र सेन के विचारों पर गहरा प्रभाव पड़ा और अब उनका मन सब धार्मिक विश्वासों के प्रति सहिष्णु और उदार हो गया। अद्भुत है रामकृष्ण परमहंस का व्यक्तित्व। जिन्होंने कभी अपने जीवन में औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की लेकिन वे अपनी प्रज्ञा शक्ति से केशवचंद्र सेन जैसे तर्कशास्त्री और ज्ञानी व्यक्ति के भी विचारों को सही दिशा प्रदान करने में सक्षम हैं। शायद यही कारण है कि रोमां रोला जैसे विद्वान व्यक्ति को भी रामकृष्ण परमहंस जैसे एक अनपढ़ व्यक्ति में जीवन दर्शन और आत्मज्ञान का  भरपूर खजाना मिला।

स्वयं रोमां रोला ने रामकृष्ण परमहंस के प्रति श्रद्धावनत होकर कहा है कि, 'जिस ईश्वररूपी महानदी में सब नालों और नदियों का महासंगम होता है, उसकी रामकृष्ण ने औरों की अपेक्षा अपने मन में पूर्णतर रूप से कल्पना ही नहीं की है। उन्होंने अपने अंदर उसकी साक्षात अनुभूति की है। यही कारण है कि मैं उन्हें प्रेम करता हूँ और इसलिए मैंने उनके अंदर से कुछ विशुद्ध जल, पृथ्वी की महातृष्णा को दूर करने के लिए आहूत किया है।'

श्वेता नागर

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(नोट- स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फरवरी 1836 को बंगाल के कामारपुकुर गांव में एक गरीब ब्राह्मण परिवार खुदीराम एवं चन्द्रमणिदेवी चट्टोपाध्याय के यहां हुआ था। पंचांग अनुसार, उस दिन फाल्गुन शुक्ल द्वितीया थी। यह तिथि 4 मार्च को है।इसलिए इस दिन उनकी जयंती मनाई जा रही है। रामकृष्ण परमहंस भारत के एक महान संत, आध्यात्मिक गुरु एवं विचारक थे। इन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं, अतः ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। स्वामी रामकृष्ण मानवता के पुजारी थे। उनकी पत्नी शारदी देवी थीं। 16 अगस्त, 1886 को यह दिव्यात्मा भौतिक शरीर को त्याग कर अनंत की यात्रा पर रवाना हो गई। ऐसे आध्यात्मिक गुरु को एसीएन टाइम्स परिवार का शत्-शत् नमन।