कवि और कविता :  दर्द का अनुवाद मेरी ज़िंदगी, अनकहा संवाद मेरी ज़िंदगी- स्व. बृजमोहन झालानी

कवि और कविता श्रंखला में युवा कवि एवं साहित्यकार आशीष दशोत्तर बता रहे हैं स्व. बृजमोहन झालानी के काव्य सृजन की विशेषता।

कवि और कविता :  दर्द का अनुवाद मेरी ज़िंदगी, अनकहा संवाद मेरी ज़िंदगी-  स्व. बृजमोहन झालानी
बृजमोहन झालानी
आशीष दशोत्तर 
 
रचनात्मकता व्यक्ति को सक्रिय तो रखती ही है सृजनशील भी बनाती है। कविता लिखने से भी महत्वपूर्ण है कविता को जीना। जो अपनी कविता को अपने जीवित संपर्कों से रचते हैं वे अपनी रचना प्रक्रिया के ज़रिए सामाजिक ताने-बाने से कई दृश्य उपस्थित करने में कामयाब होते हैं। कविता की यह भी एक प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया से गुजरना सभी के बस में नहीं होता। 
 
अपनी सृजनात्मक गतिविधियों के ज़रिए निरंतर सक्रिय रहे कवि, गीतकार श्री बृजमोहन झालानी भी ऐसे ही रचनाकार रहे जिन्होंने अपनी जीवन पद्धति से कई रचनाओं को आकार दिया। उन्होंने कविताएं बहुत कम लिखीं मगर जो भी लिखीं वे उनके जीवन अनुभवों से और अधिक अभिव्यक्त हुई।
 
निरंतर आम लोगों से मिलना और उन्हीं के बीच अपनी अभिव्यक्ति देते रहना, साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं के जरिए नई पीढ़ी को प्रोत्साहित करना और उनके हमक़दम बनकर आगे बढ़ाना झालानी जी के व्यक्तित्व में शामिल रहा। अपनी संपन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि से इतर वे साहित्यिक और सांस्कृतिक धरातल पर एक सामान्य व्यक्ति बने रहे। 
 
हर कदम पर आज दिखते शूल हैं
 
देख कर डरना यही तो भूल है 
 
मत डरो बढ़ते चलो, चलते रहो 
 
ये देखने में शूल, पर सब फूल हैं।
 
बृजमोहन जी ने अपनी रचनाओं में आम आदमी के दुःख- दर्द को अभिव्यक्त किया। उनकी कविताओं में भी यह दर्द मुखरित होता रहा। हक़ीक़त में हर रचनाकार अपने आसपास घटित हुई घटनाओं से प्रभावित होता है और उससे सरोकार भी रखता है। कविता में जीवंतता और ताज़गी भी तभी आती है जब वह प्राणवान रहे। और यह प्राण किसी भी रचना में वास्तविक स्थिति का सामना कर ही होता है। बृजमोहन जी ने अपनी रचनाओं में इसी प्राण को समाविष्ट करने की कोशिश की। 
 
वक्त की लकीरों से कट गया है आदमी 
 
अपने ही हाथों से बंट गया है आदमी।
 
भीतर और बाहर उलझन ही उलझन है 
 
प्रश्नों ही प्रश्नों से पट गया है आदमी।
 
दर्द पिघल बरसा है मन के आंगन में 
 
अख़बारी कागज़ सा फट गया है आदमी। 
 
पल-पल परिवर्तित होते समय की व्यथा उनकी रचनाओं में काफी अभिव्यक्त होती रही। अपने गीतों के माध्यम से उस सुखद वातावरण की तलाश करते रहे जो मनुष्यता के साथ जुड़ा रहना चाहिए। जब उन्हें यह दिखाई नहीं दिया तो पीड़ा उनकी रचनाओं में व्यक्त हुई। उन्होंने गीत भी लिखे, ग़ज़लें भी लिखीं, मुक्त कविताएं भी लिखीं, दोहे भी लिखे, छंद भी लिखे। उनके लिखने के साथ कहने का अंदाज़ भी निराला था। वे अपनी सामान्य बातचीत में भी काव्यात्मकता का समावेश इस तरह किया करते थे कि सुनने वाला उनकी कविता से अधिक उनकी प्रस्तुति से प्रभावित हो जाया करता था। झालानी जी की यह खूबी उन्हें सबका प्रिय बनाती रही। 
 
खो गई सब कामनाएं क्या करें 
 
सो गई संभावनाएं क्या करें।
 
पास जितनी सांस उतनी उलझनें 
 
यातना ही यातनाएं क्या करें।
 
रह गई है नाम की बस ज़िंदगी 
 
मर गई है भावनाएं क्या करें।
 
वरिष्ठ कवि डॉ. जयकुमार जलज ने बृजमोहन जी की कविताओं पर ठीक ही कहा है, 'बृजमोहन झालानी शिकायतों के कवि नहीं हैं। अपनी कविताओं में वे बड़बोलेपन से भी मुक्त हैं । वे अपनी कविताओं में अपना गुणगान करके अपनी प्रतिष्ठा नहीं बढ़ाते बल्कि उनमें खुद को विलीन करते हैं। उनकी कविताएं विवाद ,आक्रमण या विद्रोह की मुद्रा में नहीं, दुखती रग पर हाथ रखने और उसका उपचार करने की मुद्रा में है।' बृजमोहन जी ने अपनी कविताओं के ज़रिए इस बात को साबित भी किया। 
 
साथ छोड़ती अपनी छाया 
 
थकी- थकी सी बेबस काया ।
 
लेकिन फिर भी लिए साथ विश्वास 
 
ज़िंदगी जीता हूं ।
 
सारी दुनिया ने मुंह फेरा 
 
निर्मित कर प्रश्नों का घेरा 
 
लेकिन फिर भी लिए साथ में आस 
 
ज़िंदगी जीता हूं ।
 
हर पल अपने शूल बने 
 
सपने कागज़ के फूल बने 
 
लेकिन फिर भी लिए याद को पास 
 
ज़िंदगी जीता हूं।
 
 
रचनाकार अन्याय और अनीति का प्रतिकार करता है। झालानी जी के यहां पर भी एक नई रोशनी लाने की चाह दिखाई पड़ती है। वे अंधेरे पर प्रहार करते हैं और उजाले की कामना करते हैं। रचनाकार को यह सोच ही ताक़तवर बनाती है। हमारे आसपास बिखरे पड़े अन्याय के अंधकार को मिटाने की जद्दोजहद में रचनाकार उजाले के पक्ष में खड़ा होता है और उसका यही पक्ष उसे मज़बूत बनाता है। 
 
टूटते संदर्भों की सांझ 
 
उदासी जानी-अजानी 
 
और घिसी ध्वनियों से टकराती 
 
आवाज़ अब टूटती हुई बह रही है ।
 
और हम जहां के तहां कब से खड़े 
 
डोलते अंधियारे के पास सन्नाटे में 
 
अपने को छुपाए जाने किस को 
 
जाने किस क्षण को ढूंढ रहे हैं। 
 
रचनाकार हर बेहतर स्थिति को सहेजने की कोशिश करता है। उसके भीतर अच्छाइयों का विस्तार, बाहर भी अच्छाइयों को देखने की चाह रखता है। बृजमोहन जी अपनी रचनाओं में इसी अच्छाई के विस्तार पर जोर देते रहे ।उन्होंने अपनी सामाजिक मिलन सरिता की पृष्ठभूमि पर वे सब अनुभव लिए जो जीवन की विविधता को प्रदर्शित करते रहे। वे साहित्य के प्रति अपने समर्पित भाव से कभी अलग नहीं हुए। वे निरंतर साहित्य, साहित्यकारों और साहित्यिक वातावरण को लेकर चिंतित भी रहे और उस के माध्यम से एक बेहतर वातावरण बनाने की कोशिश भी करते रहे।
 
 
इससे पूर्व कि किरणें उतरे 
 
चुरा ले फूल चुपके से  
 
ले जा इन फूलों को 
 
जो सुधियों से सिंचित 
 
रात की काली माटी के नन्हें से गमले में 
 
निंदिया की डार पर 
 
सपनों के फूल बन आज खिले हैं। 
 
बृजमोहन जी के जीवन के कई आयाम रहे। उन्होंने साहित्य, संगीत, राजनीति, रंगकर्म के प्रति खुद को समर्पित कर रखा था। इसके साथ ही वे रत्न परीक्षा, हस्तरेखा, आयुर्वेद, ज्योतिष, नगर के इतिहास और सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रति सदैव समर्पित रहे। लोकरंजन और लोकप्रेम उनके व्यक्तित्व में शामिल रहा। यही कारण रहा कि उन्होंने जीवन को अपनी तरह से परिभाषित किया। एक सामान्यजन की दृष्टि से जीवन को देखते हुए उन्होंने विसंगतियों को भी सामने रखा और उन से पार पाने का हौंसला भी दिया।
 
 
यह कैसा वक्त आया 
 
कैसी हवा चली है।
 
भटके हैं रास्ते सब 
 
उलझी हुई गली है।
 
नफ़रत की आग फैली 
 
जलने लगी दिशाएं 
 
ये किसने ज़हर बांटा 
 
जहरीली सब हवाएं।
 
जो लूटते हैं खुशियां बांटते हैं ग़म 
 
है इनके लिए मौत की सज़ा भी यहां कम। 
 
उनके जीवन में कई रंग शामिल होते रहे। उनसे हर दिन बतियाने वाले, उनके अनुभव से दो-चार होने वाले, उनके साथ आत्मीय रिश्ते रखने वाले लोग उन्हें बेहतर जानते थे। उन्होंने अपने जीवन में जितनी रचनात्मकता रखी उतनी ही रचनात्मकता में ज़िंदगी भी शामिल की। यही कारण है कि उनकी कविताएं और गीत जीवन के आसपास घूमते नज़र आते रहे।जीवन की विडंबनाओं और विषमताओं को उन्होंने बखूबी उभारा और उसे अपनी रचनाओं का विषय भी बनाया। 
 
क्यों पथरीला शहर लगता है
 
हवा -पानी में ज़हर लगता है। 
 
रोशनी कम अंधेरा बहुत है 
 
अपने साए से डर लगता है।
 
यह कैसा ज़माना आ गया है 
 
जीने मरने पर कर लगता है।
 
नदी में मछलियां नहीं दिखतीं 
 
शायद पानी में मगर लगता है। 
 
बृजमोहन जी रिश्तों को निभाते ही नहीं रहे, जीते भी रहे। उनकी कविताएं रिश्तों के आसपास केंद्रित रही। उनकी कविताओं में उनके अपने दुःख- दर्द शामिल रहे। उनके अपने संबंध, उनके अपने संदर्भ, उनकी रचनाओं से जुड़े रहे । वे इन रिश्तों के प्रति पूर्ण संवेदनशील भी रहे और उन्हें अपने तरीके से सहेजते भी रहे । 
 
यादों को भेज दिया आप नहीं आए 
 
बरस बने जुग जैसे ,अनजानी दूरी है 
 
कैसे बतलाऊं मैं किस की मजबूरी है।
 
डोले रे यहां वहां यादों के साए।
 
नैनों में तुम छाए, सांस -सांस तेरा नाम 
 
तुझको न भुला पाते सुबह और शाम 
 
बिना तेरे सच कहते दुनिया न भाए। 
 
किसी भी रचनाकार के लिए आत्मीय संबंध उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं जितने व्यक्तिगत संबंध।यह आवश्यक नहीं कि रिश्ते सिर्फ व्यक्ति से व्यक्ति के हों, एक रचनाकार के संबंध अपनी स्मृतियों से भी हो सकते हैं, अपनी प्रकृति से भी, अपने परिवेश से भी और अपनी परंपरा से भी। झालानी जी की रचनाओं में ये संबंध दिखाई देते हैं। 
 
दर्द का अनुवाद मेरी ज़िंदगी 
 
अनकहा संवाद मेरी ज़िंदगी। 
 
झेलते ही झेलते दुःख- दर्द को 
 
हो गई अवसाद मेरी ज़िंदगी ।
 
वक्त ने धोखा दिया हर मोड़ पर 
 
हो गई बर्बाद मेरी ज़िंदगी ।
 
आज अपने ही खड़े वादी बने 
 
क्या करे प्रतिवाद मेरी ज़िंदगी।
 
ब्रज रहे या न रहे बस चाह है 
 
तुम रहो आबाद मेरी ज़िंदगी।
 
झालानी जी की कविता और उनके गीत संख्या में बहुत कम रहे मगर उनका प्रभाव काफी गहरा रहा। वे एक रचनाकार के तौर पर ,साहित्य प्रेमी के तौर पर जाने गए। उन्होंने रतलाम शहर की साहित्यिक संस्थाओं के उन्नयन के लिए , उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए, स्थापित करने के लिए बहुत प्रयास किए। निश्चित रूप से अपनी रचनात्मक प्रक्रिया के साथ अपने शहर और अपने परिवेश में साहित्यिक वातावरण को बनाए रखना और उसे पल्लवित करना भी एक रचनाकार का दायित्व होता है और इसमें वे अंतिम वक्त तक लगे रहे । उन्होंने जो कामना की कि, ज़िंदगी सदैव आबाद रहे, तो उनकी रचनात्मकता और सक्रियता के साथ उनकी जीवन शैली सदैव याद और आबाद रहेगी।
 

आशीष दशोत्तर
12/2, कोमल नगर
बरबड़ रोड
रतलाम - 457001
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