नीर का तीर : रतलाम बिक रहा है ! बोलो- खरीदोगे ? पसंद आपकी, कीमत ईमान बेच चुके जिम्मेदारों की, फिर मत कहना कि- हमें बताया नहीं’

यह ‘नीर का तीर’ कमान से छूट चुका है। इसे वापस अपनी ओर मोड़ पाना संभव नहीं है। इसलिए अब आप ही इसे झेलें। आप चाहें तो इससे अपने पास रखें या फिर दूसरों की ओर बढ़ा दें। यकीन जानिए, कि इससे सिर्फ वे ही जख्मी होंगे, जिनके लिए यह छोड़ा गया है।

नीर का तीर : रतलाम बिक रहा है ! बोलो- खरीदोगे ? पसंद आपकी, कीमत ईमान बेच चुके जिम्मेदारों की, फिर मत कहना कि- हमें बताया नहीं’
नीर का तीर : रतलाम बिक रहा है, बोलो- खरीदोगे ?

नीरज कुमार शुक्ला

रतलाम । बहुत पहले एक फिल्म देखी थी जिसमें ‘नितिन मुकेश’ का गाया गीत था ‘खन खन की सुनो झनकार, ये दुनिया है कालाबाजार, पैसा बोलता है...’ यह गीत आज के हालात में ज्यादा ही मौज़ू लग रहा है। कल रतलाम की नगर सरकार का साधारण सम्मेलन के दौरान भी यह बात पुष्ट हो गई। कहने को तो यह ‘साधारण’ सम्मेलन था लेकिन ‘शांति’ के ‘लाल’ के ‘अशांत’ होने और 'सिंह' की ‘शक्ति’ जागृत होने से यह ‘असाधरण’ साबित हो गया।

एक ओर देश-दुनिया में ‘रामराज्य’ (राज) स्थापित होने का इंतजार कर रही है, वहीं यहां ‘दौलत-राज’ के तमाम ‘इंद्र’ सबकुछ खरीद लेने पर तुले हैं। दोष सिर्फ ऐसे खरीददारों को देना गुस्ताखी कहलाएगी, और हम यह ‘पाप’ अपने सिर-माथे नहीं लेना चाहेंगे। वैसे भी जहां के जिम्मेदार ‘दौलत’ को अपना ‘ईमान’ और ‘भगवान’ मान चुके हों, वहां सरकार किसी की भी हो, ‘राज’ ऐसे ‘इंद्र’ ही करेंगे।

बिल्लियां आंख मूंद कर मलाई चाटती रहेंगी और ‘दौलत रामों’ से अपने हाथ कटवा चुके ‘ठाकुरों’ की 'इजलास' में आप सिर्फ मेमने की मिमियाते ही रहेंगे। तभी तो कहते हैं कि ‘बाप बड़ा ना भैया सबसे बड़ा रुपैया...।’ इसे यूं भी समझ सकते हैं कि ‘इक्ष्वाकु वंश’ में जन्मे ‘सिद्धार्थ’ को तो ‘बोधि’ वृक्ष के नीचे बुद्धत्व प्राप्त हुआ था लेकिन इन सौदागरों के लिए तो रुपयों का पेड़ ही ‘बोधि’ वृक्ष है।

आप सोच रहे होंगे कि, आखिर यह सब आपको क्यों बताया जा रहा है? तो इसका जवाब सिर्फ यह है कि जिस नगरी में सबकुछ टके सेर बिक रहा हो वहां आप ही घाटे में क्यों रहें। अगर आप भी ‘दौलत-राम’ हैं और मोल-भाव करने के थोड़े भी गुर जानते हैं तो ‘बहती गंगा में हाथ धो लीजिए।’ जहां ‘धृतराष्ट्रों’ का राज हो और ‘गांधारियां’ आंखों पर पट्टी बाधें बैठी हों, वहां कोई भी और कुछ भी खरीद अथवा बेच सकता है।

इस ‘लोक’ के ‘इंद्र’ का ‘भवन’ तो बहुत पहले ही बिक चुका है, अब शेष रतलाम को अपना बना लेने की कवायद है। खबर तो यह भी रही है कि ‘रण’ में ‘जीत की याद दिलाने वाले ‘पैलेस’ में ‘विलास’ भोगने का भी प्रयास हुआ था लेकिन कुछ नादान ‘नारदों’ के कारण यह ख्वाइश अधूरी रह गई थी। अब तो  नारद भी धृतराष्ट्र और गांधारी जैसी भूमिका में हैं। नतीजतन जिम्मेदार चंद टुकड़ों के लिए सिर्फ केवल कुछ भूखंड अथवा भवन ही नहीं, पूरा रतलाम ही बेचने के लिए तैयार बैंठे हैं।

हमारी और आपकी ‘सांसों का सौदा’ तो किसी ‘अमदड़िया’ और ‘समदड़िया’ को हो ही चुका है, कब आप का जिस्म भी दांव पर लग जाए, कह नहीं सकते। फिर यह भी जरूरी नहीं कि अगली बार कोई ‘शांति का लाल’ आपके लिए अशांत हो या किसी ‘सिंह’ की ‘शक्ति’ जागृत हो। इसलिए, या तो खुद बिक जाइए या फिर आप भी सबकुछ खरीद लीजिए।  

डिस्क्लेमर

यह ‘नीर का तीर’ किसी के चरित्र हनन के लिए नहीं चलाया गया है और न ही यह किसी के चरित्र का प्रमाण पत्र ही है। यह लिखने वाले की ‘भड़ास’ है जिसे निकालने के लिए फिलहाल कहीं-कोई सार्वजनिक मंच नजर नहीं आया। अतः इसके किसी भी शब्द, शब्द रचना, वाक्य अथवा उल्लेखित परिस्थिति से स्वयं को कतई ना जोड़ें। फिर भी किसी को ऐसा प्रतीत होता है कि यह उसके चरित्र को परिभाषित करता है या उससे थोड़ा भी मेल खाता है तो यह महज एक संयोग अथवा दुर्योग हो सकता है। ऐसे विचार को ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’ कह सकते हैं। चूंकि हम किसी के लिए इतने नेक विचार नहीं रखते, इसलिए हमारे इस दुस्साहस के लिए हमसे किसी प्रकार की क्षमा-याचना की अपेक्षा नहीं रखें।