व्यंग्य : लू ! बड़ी बेरहम है तू- आशीष दशोत्तर

युवा व्यंग्यकार आशीष दशोत्तर का यह व्यंग्य कहने को तो लू पर केंद्रित है लेकिन यह पद-प्रतिष्ठा के साथ चिपके चले आने वाले घमंड और उसके दुष्परिणाम पर की ओर भी इशारा करता है। इसे राजनीति और राजनीतिज्ञों से जोड़कर नहीं देखें, सिर्फ पढ़ें और आनंद लें।

व्यंग्य : लू ! बड़ी बेरहम है तू- आशीष दशोत्तर
लू का कार्टून गूगल से साभार।

आशीष दशोत्तर 

    चार दिन में तेरे तेवर बदल गए। तेरा तो पारा ही चढ़ गया। तेरे अंदाज़ बदल गए। तेरी बातों में तल्ख़ी आ गई। तेरी रहम, कृपा सभी कुछ गायब हो गई। सुकून देने के बजाय तू तो चिढ़ाने लगी। तपाने लगी। झुलसाने भी लगी। आखिर किसके इशारों पर नाचने लगी है तू।

    लू, तेरा गुरूर झलकने लगा है। तू मग़रूर हो गई है। अपने आगे किसी को मान ही नहीं रही है। शायद जान तो रही है मगर मानने से कतरा रही है। क्या तुझे अपने वे पुराने दिन याद नहीं। कैसी विनयशील हुआ करती थी। आंख उठाकर नहीं देखती थी। साष्टांग किया करती थी। कभी-कभी तो रीढ़-विहीन प्रतीत हुआ करती थी। और अब तो तेरा सब कुछ बदल गया है। लू, आखिर तू किसकी हो गई पिट्ठू?

    चार दिन में तू एहसानफरामोश हो गई। कल तक तुझे कोई पहचानता नहीं था। उपेक्षित और त्याज्य समझी जाती थी, तब तुझे पूरा मान दिया, सम्मान दिया। तेरा रुतबा बढ़ाया। तुझे सारे अवसर दिए। तेरे अभिमान को कोई चोंट नहीं पहुंचने दी गई। तेरे शान में किसी ने गुस्ताखी की तो उसे चलता कर दिया गया। मगर तेरे ऊपर कोई आंच नहीं आने दी गई। और इधर, ज़रा सा समय बदलते तेरा व्यवहार ही बदल गया।

    तूने शायद वह कहावत नहीं सुनी होगी, ‘‘चार दिन की चांदनी, फिर अंधेरी रात।” या सुनी भी होगी तो इसे अनसुना कर दिया होगा यह समझकर की चांदनी से तपन का क्या रिश्ता। मगर रिश्ते तो यहीं बनते हैं और काम भी आते हैं। रिश्तों से याद आया, दुर्दिनों में तूने भी रिश्ते बनाने की तो बड़ी कोशिश की। हर किसी की दुहाई दी। न जाने किस-किस से कहलवाया। मगर उस समय तेरी नीयत समझी जा चुकी थी इसलिए तुझे कोई तवज्जो नहीं दी गई। सभी को मालूम था कि मौसम बदलते ही तू रंग बदलने में माहिर है। मुंह देखते ही तिलक लगाने की तेरी आदत रही है। तूने हर किसी को ऐसा ही समझा और हर किसी को अपने मतलब के अनुसार इस्तेमाल करती रही। मगर इस बार तेरे तीखे तेवर देखकर यह कहना पड़ रहा है कि चार दिन चांदनी के ही नहीं तेरे भी हो सकते हैं। चार दिन के बाद तेरा क्या होगा तू समझ ले। इन चार दिनों में अपनी तो जैसे-तैसे, थोड़ी ऐसे या वैसे, कट जाएगी मगर तेरा क्या होगा? तेरा कोई खैरख्वाह नहीं होगा। तू इधर की रहेगी न उधर की। 

    बारिश के चार छींटे पड़े तो तुझे तेरी औकात समझ में आ जाएगी। अभी जितना इतरा रही है न, फिर पछताएगी। सब तुझे भुला चुके होंगे। अभी जिसके इशारों पर तूने पारा चढ़ा रखा है वे भी तेरे अपने नहीं रहेंगे। तुझे न ईनाम मिलेगा न ही अवॉर्ड। कभी बारिश तुझे यह नहीं कहेगी कि तूने लोगों को परेशान कर अच्छा किया। तू अच्छा तपी तो बारिश हुई। ऐसे कोई समझेगा ही नहीं। कल जब आकाश में बादल छाएंगे तो तुझे दर-दर की ठोकर खाने पर मजबूर होना पड़ेगा। 

    लू, ज़रा अपने मौसमी मित्रों से ज़रा सीख ले। वर्षा चाहे जितनी तेज हो मगर तेरी तपिश को कभी कम नहीं होने देती। समय-समय पर तुझे भी मौका देती रहती है ताकि तेरी अहमियत भी बनी रहे। शीत कितनी ही तीखी हो मगर तेरे अस्तित्व को बनाए रखती है। बल्कि शीत के कारण तेरी कीमत और बढ़ जाती है। तेरी पूछ-परख ज्यादा होने लगती है। यानी हर कोई तुझे मौका देता रहता है और तू चार दिन में ही सबको भूल गई। लू, तेरे तेवर से आ रही है किसी षड्यंत्र की बू।

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